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का॒रुर॒हं त॒तो भि॒षगु॑पलप्र॒क्षिणी॑ न॒ना । नाना॑धियो वसू॒यवोऽनु॒ गा इ॑व तस्थि॒मेन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kārur ahaṁ tato bhiṣag upalaprakṣiṇī nanā | nānādhiyo vasūyavo nu gā iva tasthimendrāyendo pari srava ||

पद पाठ

का॒रुः । अ॒हम् । त॒तः । भि॒षक् । उ॒प॒ल॒ऽप्र॒क्षिणी॑ । न॒ना । नाना॑ऽधियः । व॒सु॒ऽयवः॑ । अनु॑ । गाःऽइ॑व । त॒स्थि॒म॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥ ९.११२.३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:112» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (कारुः, अहं) मैं शिल्पविद्या की शक्ति रखता (ततः) पुनः (भिषक्) वैद्य भी बन सकता हूँ, (नना) मेरी बुद्धि नम्र है अर्थात् मैं अपनी बुद्धि को जिधर लगाना चाहूँ, लगा सकता हूँ, (उपलप्रक्षिणी) पाषाणों का संस्कार करनेवाली मेरी बुद्धि मुझे मन्दिरों का निर्माता भी बना सकती है, इस प्रकार (नानाधियः) नाना कर्मोंवाले मेरे भाव (वसुयवः) जो ऐश्वर्य्य को चाहते हैं, वे विद्यमान हैं। हम लोग (अनु, गाः) इन्द्रियों की वृत्तियों के समान ऊँच-नीच की ओर जानेवाले (तस्थिम) हैं, इसलिये (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! हमारी वृत्तियों को (इन्द्राय) उच्चैश्वर्य्य के लिये (परि,स्रव) प्रवाहित करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा से उच्चोद्देश्य की प्रार्थना की गई है कि हे भगवन् ! यद्यपि मेरी बुद्धि मुझे कवि, वैद्य तथा शिल्पी आदि नाना भावों की ओर ले जाती है, तथापि आप ऐश्वर्य्यप्राप्ति के लिये मेरे मन की प्रेरणा करके मुझे उच्चैश्वर्य्य की ओर प्रेरित करें। रमेशचन्द्रदत्त तथा अन्य कई एक यूरोपियन भाष्यकारों ने इस मन्त्र के यह अर्थ किये हैं कि मैं कारू अर्थात् सूत बुननेवाला हूँ, मेरा पिता वैद्य और माता धान कूटती है, इस प्रकार नाना जातिवाले हम एक ही परिवार के अङ्ग हैं, इससे उन्होंने यह सिद्ध किया है कि वेदों में ब्राह्मणादि वर्णों का वर्णन नहीं, अस्तु, इसका हम विस्तारपूर्वक खण्डन उपसंहार में करेंगे ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (कारुः, अहं) अहं शिल्पविद्याशक्तिं दधामि (ततः) ततश्च  (भिषक्) चिकित्सकोऽपि भवितुमर्हामि (नना)  नम्रा च  मे  बुद्धिः  सर्वत्र यथेष्टं गमयितुं  शक्या (उपलप्रक्षिणी)  पाषाणानां  संस्कर्त्री  मम बुद्धिर्मां मन्दिराणां  निर्मातारमपि  शक्नोति  कर्तुम्  (नानाधियः) एवं नानाकर्मवन्तो मद्भावाः (वसुयवः) ऐश्वर्य्यं कामयमाना विद्यन्ते, वयं च (अनु, गाः) इन्द्रियवृत्तय इवोच्चावचविषयगमनशीलाः (तस्थिम) स्मः,अतः (इन्दो) हे परमात्मन् !  (इन्द्राय)  परमैश्वर्याय मद्वृत्तिं (परि, स्रव) प्रवाहय ॥३॥